करीब आज चार महीने हो गए स्टेशन की वो भीर और लोगो की जीवन चक्र को पूरा करने की भाग दौर को देखते हुए । उस भीड़ का हिस्सा मै भी हूँ और इतने समय बीत जाने के बाद उस औरत को आज भी उसी तरह देखता हु जेसा मैंने पहली बार स्टेशन पर देखा था । सायद हजारो लोगो की सोच उस औरत की प्रति बदल गई होगी पर उसकी सोच में आज तक कोई फरक नहीं आया है । सायद वही उसकी जीने की आस और आपनी सोच को हमेसा कायम रख कर जितने भी दिन हो जीने की वही जरिया से जीना चाहती है ।
टिकेट काउंटर की हरेक लाइन के लोगो के पास जा कर कुछ वैसे सब्दो को दुहराते रहना जिसे हर वक़त मै सुनता हु और उसकी हरेक समय की हरकतों को उसके चहेरे पर पढ़ना हजारो अजीब सी सवाल मेरे जेहन में आती है । " बाबु मेरी ट्रेन छुट रही है कुछ पैसे कम हो रन्हे है" कई लोगो के ना कहने और लोगो को उसके ऊपर ना बिस्वास करने के लिये कहने पर भी मेरे हांथ रुके नहीं और एक दस के नोट को मैंने उसके हाथ में थमा दिये । मेरे आगे के एक आदमी ने मुझ से पूछा "आप उस औरत को जानते है" मैंने कान्हा " नहीं" और और मुझ पर मुस्कुराने लगा । और मेरी नज़र उस बूढी औरत को देखने लगी की उसकी मुश्किले मेरे अंश भर के सहायता से कम हुई की नहीं.
पर कुछ पल के बाद मेरे चहेरे पर हलकी सी मुस्कान आई क्युकी सायद वह आपने पेट के लिये वह काम कर रही थी । और वह उसकी रोज की जीवन थी जिसे मै आज भी देखता हूँ ।
मुझे खुद पर अफ़सोस हुआ यह जान कर सायद यह भी एक जीवन का एक अंश है और उसे उसमे कोई अफ़सोस नहीं है । और हम उस औरत की जीवन के भगौलिक सुख से कंही आगे है पर सायद एक एक कदम पर हम अपने आपनो, आपने जीवन से उस सुख और सन्ति की उम्मीद करते रहते है और ना जाने कितने रिस्तो को उस रिश्तो के लिये भूलते जाते है जो उन सभी रिस्तो की सीडी होती है जिसपर हमें चड़ने के बाद लौटना भी उसी रास्ते से है ।
कहानियां हमारे आसपास जन्म लेती है...परवान पाती है और हमारे इर्द -गिर्द ही दम तोड़ देती है.. लम्बी यात्रा में ऐसे अनुभव जीने का संबल देते हैं और खुद को जीवंत बनाये रखने का हौसला... हर आदमी.. गर चाहे तो इस अन्दर की यात्रा से दो-चार हो सकता है.. आपने सुन्दर कहा.. अच्छा लिखा और खूबसूरत एहसास की जीया ... बधाई ......
ReplyDeleteराहुल